Tuesday, June 2, 2009

आलोचना

दूर गगन के पार से कर रहा
वार मुझ पर वो बारम्बार
कहीं शरण की जगह नहीं
है वो सबका मालिक निर्विकार
कभी कभी झलक रौशनी की
अन्यथा सर्वदा सत्ता है अन्धकार की
क्यों वो करता है ये ज़ुल्म ये अत्याचार
मन मेरा ही करता मुझसे प्रशन बारम्बार

उसकी सत्ता के मोहरे हैं हम
किन्तु जड़ता का मोह करते हम
स्वतः चलायमान हो पाते जो अगर
सरल सुगम हो जाती जीवन डगर
क्यों रखता वो समस्त अधिकार
हम हैं क्या निश्छल निर्जीव
बस चलते फिरते कर्तव्यों का भार
अब बहुत हुई मनमानी और अत्याचार
नहीं सहेंगे ये दुष्टता बारम्बार

करना है अब निष्पक्ष विचार और अचार
क्या ज़रूरी है मानव और उसका व्यवहार
होगा जो अति बलवान अगर वो
देगा शमा हर बार हमें वो
करना है अब हमे आचार वही
जो मांगे पल पल का प्रत्युत्तर
बढना है बस उसी पथ पर
जो करे युध्घोश उसकी सता पर
लड़ना होगा पराजय से बार बार
अंतिम सुख की शय्या मिलने तक बारम्बार

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